बलबीर पुंज
भारत में “सेकुलरवाद” कितना विकृत हो चुका है – इसे विधानसभा चुनावों ने फिर रेखांकित कर दिया है. कांग्रेस ने भाजपा के विजय-उपक्रम को रोकने हेतु कुछ तथाकथित “सेकुलर” राजनीतिक दलों से चुनावी समझौता किया है. प. बंगाल में उसने वामपंथियों के साथ हुगली स्थित फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की “इंडियन सेकुलर फ्रंट” (आई.एस.एफ.) से गठबंधन किया है, वहीं असम में मौलाना बदरुद्दीन अजमल के “ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट” (ए.आई.यू.डी.एफ.) के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है.
दोनों ही मजहबी राजनीतिक दलों का परिचय उनके राजनीतिक दृष्टिकोण, जो शरीयत और मुस्लिम हित तक सीमित है – उससे स्पष्ट है. यह पहली बार नहीं है, जब देश में सेकुलरवाद के नाम पर इस्लामी कट्टरता और संबंधित मजहबी मान्यताओं को पोषित किया जा रहा है. कटु सत्य तो यह है कि स्वतंत्रता से पहले और बाद में, सेकुलरिज्म की आड़ में जहां मुस्लिमों को इस्लाम के नाम पर एकजुट किया जा रहा है, वहीं हिन्दू समाज को जातिगत राजनीति से विभाजित करने का प्रयास हो रहा है. इस विकृति का न केवल बीजारोपण, अपितु उसे प्रोत्साहित करने में कांग्रेस ने महती भूमिका निभाई है. कांग्रेस की इस्लामी कट्टरवादियों से गलबहियां नई नहीं है. केरल में 1976 से कांग्रेस नीत यूनाइनेड डेमोक्रेटिक फ्रंट में “इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग” (आई.यू.एम.एल.) सहयोगी बनी हुई है. यह दल उसी मुस्लिम लीग का अवशेष है, जिसने “काफिर-कुफ्र” की अवधारणा से प्रेरित होकर और हिंदुओं के साथ सत्ता साझा करने से इंकार करते हुए 1947 में देश का रक्तरंजित विभाजन कराया था. न केवल भारतीय मुस्लिम लीग, अपितु आजादी से पहले जो इस्लामी नेता पाकिस्तान के लिए आंदोलित थे और विभाजन के बाद खंडित भारत में रुकना पसंद किया, उन्हें भी कांग्रेस ने सेकुलरिस्ट का प्रमाणपत्र दे दिया. ऐसे लोगों में बेगम एजाज रसूल भी शामिल थीं, जो पहले मुस्लिम लीग उत्तरप्रदेश प्रांत की नेत्री थीं और बाद में भारतीय संविधान सभा की सदस्य बनी व 1969-70 और 1970-71 में उत्तरप्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार में मंत्री भी रहीं. इस प्रकार के लोगों की एक लंबी सूची है.
अब इसे विकृत सेकुलरवाद राजनीति की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि जो वामपंथी राजनीतिक कारणों से केरल में अपने धुर-विरोधी कांग्रेस की सहयोगी आई.यू.एम.एल. को “सेकुलर” तक नहीं मानते हैं, वह तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में डीएमके नीत गठबंधन का हिस्सा बनकर कांग्रेस और उसी आई.यू.एम.एल. का साथ दे रहे हैं. यही नहीं, केरल के मुख्य प्रतिद्वंदी कांग्रेस और वामपंथी – प.बंगाल में मिलकर अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की जुगत में हैं, वह भी उस घोर इस्लामी और अब “सेकुलरिस्ट” अब्बास सिद्दीकी की अनुकंपा से – जो मंदिर जाने वाले मुसलमानों का विरोध करता रहा है और, बकौल लेखिका तसलीमा नसरीन – वह फ्रांस में जिहादी द्वारा एक शिक्षक की हत्या का समर्थन कर चुका है. कांग्रेस नेतृत्व में बदलाव की मांग कर रहे 23 पार्टी नेताओं – जिन्हें जी-23 कहकर संबोधित किया जाता है – उसके एक सदस्य आनंद शर्मा ने कांग्रेस द्वारा सिद्दीकी से हाथ मिलाने का विरोध किया है. उनका कहना है, “आई.एस.एफ. जैसी पार्टियों और ऐसी अन्य शक्तियों के साथ गठबंधन पार्टी की मूल विचारधारा के विपरीत है.” वास्तव में, आनंद शर्मा के इस वक्तव्य में ही कांग्रेस संकट का मूल कारण छिपा है. कांग्रेस का जन्म एक विचार के रूप में 1885 में तब हुआ, जब ब्रितानी ए.ओ. ह्यूम के साथ दादाभाई नौरोजी और दिनशा वाचा ने इसकी स्थापना की. कालांतर में इस संगठन को लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले से लेकर गांधीजी, मदनमोहन मालवीय, लालराजपत राय, सुभाषचंद्र बोस और सरदार पटेल आदि सनातन विचारकों ने भारतीय जनाकांक्षाओं का मंच बनाया, जो राष्ट्रीय आंदोलन का पर्याय भी बन गया. गांधीजी द्वारा 1919-24 में इस्लामी खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व करने के निर्णय जैसे अपवादों को छोड़कर कांग्रेस का जनता से व्यापक जुड़ाव रहा. सच तो यह है कि कांग्रेस द्वारा इस इस्लामी अभियान को समर्थन देना- भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम अलगाववाद को प्रोत्साहन देने का पहला प्रत्यक्ष मामला था. स्वतंत्रता पश्चात 30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की नृशंस हत्या और 15 दिसंबर, 1950 में सरदार पटेल के देहांत के बाद कांग्रेस पूरी तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू के आभामंडल में थी. वास्तव में, इसी दौर से कांग्रेस का वैचारिक पतन शुरू हो गया. साम्यवादी सोवियत संघ से निकटता के कारण पं. नेहरू ने गांधी-पटेल के राष्ट्रवादी चिंतन और वैदिक सनातन विचारों को तिलांजलि देकर जिस सेकुलरवाद का प्रचार किया और उसे सत्ता-अधिष्ठान में स्थान दिया, उसने इस्लामी कट्टरता और हिन्दू-विरोधी मानसिकता को सबसे अधिक पोषित किया. इस विकृति का पहला प्रत्यक्ष प्रमाण तब देखने को मिला, जब पं. नेहरू ने जम्मू-कश्मीर के इस्लामी स्वरूप को बरकरार रखने हेतु धारा 370-35ए को संविधान में जोड़ दिया, तो उसी कालखंड में बहुसंख्यकों के लिए अविलंब “हिन्दू कोड बिल” ले आए. तब पं. नेहरू ने आस्था के नाम पर मुस्लिम समुदाय को उनकी हलाला, तीन तलाक आदि कुरीतियों के साथ छोड़ दिया. यह स्थिति तब और विकृत हो गई, जब पं. नेहरू के निधन पश्चात इंदिरा गांधी की निरंकुश प्रवृति ने 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया और उन्होंने अपनी राजनीति और अल्पमत सरकार को जीवित रखने के लिए संसद के भीतर-बाहर उन वामपंथियों का समर्थन ले लिया, जो वैचारिक और अपने हिन्दू विरोधी विदेशी चिंतन के कारण भारतीय संस्कृति से स्वयं को (आज भी) जोड़ नहीं पाए थे. अपने मूल दर्शन के कारण वामपंथियों के राजनीतिक कुनबे ने पाकिस्तान के जन्म में दाई की भूमिका निभाई थी, गांधीजी-सुभाषचंद्र बोस सहित कई स्वतंत्रता सेनानियों को अपशब्द कहे, खंडित भारत को कई राष्ट्रों का समूह माना, 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद में रजाकारों, तो 1962 के युद्ध में चीन का समर्थन किया, 1967 में नक्सलवाद को जन्म दिया और कालांतर में 1998 के पोखरण-2 परमाणु परीक्षण का विरोध किया था.
इस अस्वाभाविक आलिंगन का दुष्परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में सक्रिय कम्युनिस्ट नेताओं-कार्यकर्ताओं ने इंदिरा गुट वाले कांग्रेस में शामिल होकर उसके अवशेष रूपी मूल गांधीवादी विचारधारा को नगण्य कर दिया और कांग्रेस को अपने “विचार संगोष्ठी” में परिवर्तित कर दिया. कांग्रेस और वामपंथियों की इसी जुगलबंदी ने भारतीय मुस्लिम समाज में उस “विशेषाधिकार” की भावना को जन्म दे दिया, जिसमें वह अपने मजहबी दर्शन को आज भी देश और संविधान से ऊपर मानते है. इन घटनाक्रमों में वर्ष 1976-77 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की राम मंदिर के प्रमाण संबंधित उत्खनन रिपोर्ट को दबाना. वर्ष 1985-86 में शाहबानो मामले पर सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय को संसद में बहुमत के बल पर पलटना. वर्ष 2004-14 के बीच असंवैधानिक “राष्ट्रीय सलाहकार परिषद” और कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के रिमोट द्वारा संचालित तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का 2006 में राष्ट्रीय संसाधनों पर मुस्लिमों का पहला अधिकार बताना. वर्ष 2007 में हलफनामा देकर सर्वोच्च न्यायालय में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को काल्पनिक कहना. इस्लामी आतंकवाद और कट्टरवाद को “इस्लामोफोबिया” घोषित करने हेतु 2007-08 में “हिन्दू-भगवा आतंकवाद” का हौआ खड़ा करना. पाकिस्तान प्रायोजित 26/11 मुंबई आतंकी हमले में आरएसएस की संलिप्ता ढूंढना. जिहादी पत्थरबाजों और अलगाववादियों से सहानुभूति रखना. वर्ष 2013 में हिन्दू विरोधी सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम कानून का प्रस्ताव संसद में लाना. वर्ष 2015 में दादरी स्थित मो. अखलाक की हत्या से देश की सहिष्णु छवि को शेष विश्व में कलंकित करना. वर्ष 2016 में कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी द्वारा “भारत तेरे टुकड़े टुकड़े होंगे…इंशा अल्लाह..” नारा लगाने के आरोपी कन्हैया कुमार के साथ खड़ा होना. वर्ष 2017 में राजनीतिक विरोध के नाम पर सार्वजनिक रूप से केरल की सड़क पर गाय के बछड़े को मारकर कांग्रेस नेताओं द्वारा गौमांस का सेवन करना. वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राम मंदिर के पक्ष में निर्णय देने पर संदेह जताना. “लव-जिहाद” की गंभीरता की अवहेलना और पारित/प्रस्तावित संबंधित कानूनों का विरोध करना – आदि शामिल है.
सच तो यह है कि दशकों से यह जमात “सेकुलर सर्टिफिकेट” देकर देश में भारत-हिन्दू विरोधी एजेंडे को पुष्ट कर रहा है. यह राष्ट्रीय राजनीति पर कुठाराघात है कि जिस विषाक्त मजहबी अवधारणाओं ने भारत का रक्तरंजित विभाजन करके पाकिस्तान को जन्म दिया, उसे खंडित भारत में आज भी सेकुलरवाद के नाम पर पोषित किया जा रहा है.
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं.)
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