समाज और स्वयंसेवक मिलकर कर रहे गाँवों का कायापलट

ग्राम विकास के लिए नानाजी देशमुख ‘युगानुकूल ग्रामीण पुनर्रचना’ शब्द प्रयोग किया करते थे. प्रकृति संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण आदि गांव से जुड़ीं जो मूलभूत चीजें हैं, उनका संरक्षण ही गांव का विकास है. इसके अलावा कृषि यानी भूमि की उर्वरा शक्ति, जल यानि सिंचाई, वर्षाजल एवं पेजयल का संरक्षण, जैव संपदा का विकास, वनीकरण यानि वृक्षारोपण. इसी प्रकार ऊर्जा यानि सौर ऊर्जा, छोटे-छोटे बांधों से जल ऊर्जा, गोबर गैस आदि. जनसंपदा सबसे बड़ी संपदा है. जनसामान्य को रोजगार, स्वास्थ्य, संस्कार आदि ग्राम विकास की मूलभूत बातें हैं.
महामहिम डॉ. अब्दुल कलाम गांवों के लिए कुछ बातों पर जोर दिया करते थे. स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत चीजें तो चाहिए ही, लेकिन विकास गांव की आत्मा के अनुरूप होना चाहिए. गांव की आत्मा यानि गांव के लोग मिलकर फैसला करें. कोई विवाद नहीं चाहिए. सभी छुआछूत तथा अन्य भेदभाव से ऊपर उठ कर विचार करें. सबके लिए समान श्मशान एवं समान जलस्रोत हों. इसलिए विकास की यह कल्पना भौतिक और आध्यात्मिक दोनों है. यह प्रकृतिपूरक विकास की कल्पना है.
हम जिन सप्त संपदाओं का विचार करते हैं यानि भूमि, जल, जीव, वन, गौ, ऊर्जा और जन. इनका सबसे अधिक संरक्षण वनवासी समाज ने किया है. उससे थोड़ा कम गांव के लोगों ने किया है. इसके विपरीत यदि किसी ने कम किया है अथवा विकास की अंधी दौड़ में शामिल होकर इनके क्षरण का प्रयास जहां सबसे अधिक हुआ है तो वह शहरी क्षेत्रों में अधिक हुआ है. इसलिए अधिक समझदारी से इन विषयों पर काम करने की जरूरत नगरीय क्षेत्रों में अधिक दिखाई देती है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने समाज के साथ मिलकर देशभर में युगानुकूल ग्रामीण पुनर्रचना के सराहनीय प्रयोग किए हैं, जिनका असर करीब एक हजार गांवों में अब साफ देखा जा सकता है. संघ की लगभग तीन चौथाई शाखाएं ग्रामीण क्षेत्रों में ही हैं, जिनकी संख्या करीब ३०,००० हैं. जैविक खाद, गोवंश, ग्राम स्वास्थ्य, मंदिरों आदि के माध्यम से हो रहे सामाजिक परिवर्तन की यदि बात करें तो स्थान-स्थान पर इसका प्रभाव अब स्पष्ट दिखाई दे रहा है, कुछ स्थानों पर स्वयंसेवक यह कार्य कर हैं, जबकि कुछ स्थानों पर ग्राम के लोगों के साथ मिलकर कर रहे हैं. अर्थात ग्राम विकास और सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न आयामों को लेकर संघ की प्रेरणा से पर्याप्त संख्या में लोग काम कर रहे हैं. देश भर में ऐसे करीब २०० गांव हैं, जहां विकास का अच्छा काम हुआ है. उनका आसपास के काफी ग्रामों पर भी असर है. वहां व्यसनमुक्ति, समरसतापूर्ण व्यवहार, स्वरोजगार, स्वास्थ्य, जैविक कृषि आदि आयामों को लेकर प्रशंसनीय काम हुआ है.
दिल्ली के निकट पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक अनवरपुर ग्राम विकास समिति है, जिसके माध्यम से आसपास के करीब १०० ग्रामों में कार्य चलता है. कोयम्बटूर के माता अमृतानन्दमयी मठ में हुए वृक्षारोपण के कारण मठ का तापमान शहर की तुलना में प्राय: तीन डिग्री कम रहता है. वहां आने वाले सभी छात्रों के लिए वृक्षारोपण करना अनिवार्य है. पांच-साल तक विद्यार्थी वहां रहते हैं एवं अपनी पढ़ाई के साथ-साथ वृक्षों का पोषण भी करते हैं. इस कारण अब वहां घना जंगल विकसित हो गया है. यह शिक्षा के साथ पर्यावरण संरक्षण को जोड़ने का ही प्रभाव है. पर्यावरण संरक्षण पर हो रहे विश्व सम्मेलनों में जो चर्चा होती है, भारत में वह कल्पना प्रारंभ से ही मानवीय जीवन का अभिन्न अंग रही है. इसलिए विकास की अंधी दौड़ के स्थान पर प्रकृतिपोषक विकास को बढ़ावा देना चाहिए.
असम के नलबाड़ी जिले में स्थित सांदाकुर्ची गांव शून्य लागत कृषि के कारण आसपास के दस गांवों का केन्द्र बना हुआ है. पंचगव्य उत्पादों का निर्माण भी वहां बड़े पैमाने पर होता है. व्यसनमुक्ति हालांकि वहां कठिन है, लेकिन वह भी काम हुआ है. स्वास्थ्य एवं स्वावलंबन का काम भी हुआ है. इसलिए वहां काम करने वाले हमारे कार्यकर्ता को वहां की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पुरस्कृत किया. मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के मोहद गांव का असर आसपास के पांच गांवों पर है. वहां एक बड़े ग्राम पुंज में जैविक कृषि, जल संरक्षण, हर घर में शौचालय, गोबर गैस और स्वच्छता के सफल प्रयोग हुए हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में देवबंद के पास मिरगपुर गांव है. गोपालन और व्यसनमुक्ति को लेकर वहां देखने लायक काम है. हरियाणा एवं पंजाब तक से लोग वहां आते हैं. संघ के स्वयंसेवक भी वहां हैं, लेकिन यह एक प्रकार से सामाजिक प्रयास है. यह इस बात का उदाहरण है कि समाज मिलकर किस प्रकार एक बड़ा अनुकरणीय कार्य कर सकता है.
उत्तराखंड में उत्तर काशी जिले के मनेरी विकास खंड के 60 गांवों में सशक्त काम हुआ है. पर्वतीय गांवों में किस प्रकार कार्य हो सकता है यह उसका उदाहरण है. गुजरात में सूरत के पास देवगढ़ नामक एक वनवासी गांव है. वहां स्वावलम्बन का काम आसपास के 25 गांवों में हुआ है. वहां चावल की खेती बहुत ही सुनियोजित ढंग से होती है. यह कार्य सहकारी पद्धति से होता है और लाभ का बंटवारा सभी सदस्यों में होता है. सब्जी उत्पादन भी बड़े पैमाने पर होता है. 80 किमी दूर यानि सूरत तक से लोग वहां सब्जी खरीदने आते हैं. बांस से भी वे विभिन्न प्रकार के सामान बनाते हैं. वनवासी क्षेत्र में विकास का यह एक नमूना है. राजस्थान के झालावाड़ जिले में मानपुरा गांव है, जहां जैविक कृषि का उल्लेखनीय काम हुआ है. आसपास के 20-25 गांवों पर इसका असर है. हल्दी और जीरे की खेती वहां बड़े पैमाने पर होती है. वहां की पैदावार पूरे देश में जाती है. यह शून्य लागत खेती का बड़ा प्रशिक्षण केन्द्र भी है. यह गांव व्यसनमुक्त एवं विवादमुक्त भी है. स्वास्थ्य हेतु वहां बहुत पहले से एक परम्परागत चिकित्सा पद्धति चली आ रही है. करीब 90 प्रतिशत रोगों का उपचार उसी पद्धति से हो जाता है.
बिहार के हाजीपुर जिले में मंडुवा गांव है, जहां युवाओं को दिए गए प्रशिक्षण के कारण आसपास के 10 गांवों से 50 नौजवान सेना तथा रेलवे में भर्ती हुए हैं. पहले वहां शिक्षा का प्रसार बहुत कम था. लेकिन एक स्वाध्याय केन्द्र के माध्यम से यह उल्लेखनीय कार्य खड़ा किया गया है. एक सशक्त गांव किस प्रकार पूरे जिले को आप्लावित कर सकता है यह उसका उदाहरण है. पश्चिम बंगाल के तारकेश्वर जिले में ताजपुर गांव है. वहां शिक्षा प्रसार का काम हुआ है. वहां कुछ वनवासी बस्तियां भी हैं. चार-पांच स्थानों पर ग्रामवासियों द्वारा निशुल्क शिक्षा का कार्य चलता है. वहां बालक एवं बालिकाओं के लिए बहुत अच्छे संस्कार केन्द्र भी हैं. दक्षिण भारत में ऐसे विकसित ग्रामों की श्रृंखला बहुत लंबी है. कर्नाटक में जैविक कृषि का बहुत काम हो रहा है, वे मुख्यत: जैविक कृषि करने वाले किसान हैं. तीर्थहल्ली में कृषि प्रयोग परिवार के माध्यम से करीब 500 लोग जैविक कृषि करते हैं. इडकिदु गांव में भी अच्छा काम हुआ है.
महाराष्ट्र के जालना जिले में दहीग्वाहण नामक गांव है, जहां गोबर गैस ऊर्जा और जल संरक्षण का प्रेरक प्रयोग हुआ है. वहां एक नदी है, जिस पर छोटे-छोटे बांध बनाने से आसपास के कई गांवों का जलस्तर ऊपर आया है. आंध्र के वारंगल जिले में गंगदेवपल्ली नामक गांव में एक ही जलस्रोत से सभी घरों को पेयजल उपलब्ध कराने व जल के दुरुपयोग को रोकने का सराहनीय प्रयोग हुआ है. वहां घर के अंदर पानी ले जाने की मनाही है. घर के बाहर एक निश्चित स्थान है, जहां तक पानी ले जाने की अनुमति है. गांववालों ने तय किया कि बैंक एक प्रतिशत से अधिक ब्याज नहीं लेगा. इसलिए बैंक भी गांववालों की शर्तों पर ॠण देता है. ओडिशा और तेलंगाना की सीमा पर बसे श्रीकाकुलम जिले में कडमू गांव है. वहां एक गांव के कारण दस गांवों में बाल संस्कार का बहुत अच्छा प्रयोग हुआ है. ये बाल संस्कार केन्द्र विद्यालयों जैसे चल रहे हैं. मालवा प्रांत में रूपाखेडी खंड है. वहां के सभी 38 ग्रामों में शाखा के माध्यम से इस प्रकार के प्रयोग चलते हैं.
देश के प्रत्येक खंड में कम से कम एक गांव स्वाभाविक रूप से ऐसा खड़ा करने का प्रयास है, जहां काम देखने लायक हो. इसी प्रकार प्रत्येक जिले में कम से कम एक प्रभात ग्राम खड़ा हो ताकि वहीं के लोग उसे देखकर उसका अनुकरण करें. इसके अलावा यह भी प्रयास है कि ग्राम विकास का काम करने वाली कुछ संस्थाएं खड़ी हों जैसे कि दीनदयाल धाम मथुरा, ग्राम भारती, दीनदयाल शोध संस्थान जैसी संस्थाएं कर रही हैं. गायत्री परिवार जैसी संस्थाओं के द्वारा भी अच्छा काम हो रहा है. ग्राम विकास सभी को साथ लेकर चलने वाला काम है, यह केवल संघ की शाखा तक सीमित नहीं है.
लेखक – डॉ. दिनेश, ग्राम विकास प्रमुख (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ)

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