“सच पूछो तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की,
संधि-वचन सम्पूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की.
सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके पीछे, जब जगमग है..” – दिनकर (कुरुक्षेत्र)
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने शक्ति की आवश्यकता को लेकर 1946 में अपने काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ में जब ये पंक्तियाँ लिखीं थीं, तब उसके पीछे भारतभूमि की क्रोधपूर्ण वेदना का एक लम्बा इतिहास था. इनमें अन्तर्निहित वेदना उस समाज की थी जो शक्ति के महत्व को भूलने के कारण पराभव के एक लम्बे कालखंड से गुज़र रहा था. उसे क्रोध था – अपनी कई सौ साल की दासता पर और शायद अपने आप पर भी कि वह गीता के मूल भाव को भूल कैसे गया? इन पंक्तिओं में छिपे हुए भाव ये भी बताते हैं कि जब भी कोई व्यक्ति, समाज व राष्ट्र अज्ञान, आलस्य अथवा अहंकार के वशीभूत होकर शक्ति का सम्मान, उसका संचय और अवसर आने पर उसका उपयोग भूल जाता है तो फिर उसका पतन निश्चित होता है.
शक्ति सिर्फ युद्ध के लिए ही नहीं, शांति के लिए भी आवश्यक है. दरअसल सामर्थ्यवान होना किसी भी राष्ट्र के लिए शांति की पहली सीढ़ी है. राजनीति शास्त्र के जानकार भलीभांति जानते हैं कि दो परस्पर प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों के बीच शक्ति-संतुलन युद्ध को टालने के लिए कितना ज़रूरी होता है. जब तक दो विरोधी ताकतों के बीच शक्ति की बराबरी या बराबरी का अहसास रहता है शांति कायम रहती है. जैसे ही यह संतुलन टूटता है, शांति धराशायी हो जाती है. इस मायने में शक्ति का संधान सिर्फ शांति के लिए ही नहीं, अपितु अस्तित्वमात्र बचाये रखने के लिए भी अनिवार्य है.
इतिहास साक्षी है कि भारत ने जब शक्ति का संचयन और उसका संगठन छोड़ दिया तो शताब्दियों तक भारत माता विदेशी आक्रान्ताओं की तलवारों से लहूलुहान होकर दासता की बेड़ियों में जकड़ी रही. ज़्यादा दूर नहीं, आज़ादी के बाद पंचशील के रूमानी विचारों से भ्रमित देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जब देश की सेना को कमज़ोर रहने दिया तो 1962 में चीन के हाथों हमने पराजय का दंश झेला. इससे उलट उदाहरण भी उपलब्ध है. 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दुनिया की परवाह न करते हुए परमाणु विस्फोट किया. उसके बाद से तमाम आर्थिक/सामरिक/तकनीकी प्रतिबंधों के बावजूद देश उत्तरोत्तर अधिक शक्तिशाली होता गया है. विश्व में भारत के सम्मान में इसके बाद लगातार वृद्धि हुई है.
शक्तिपूजा का अर्थ सिर्फ सामरिक शक्ति की उपासना नहीं है. अपने व्यापक अर्थ में इसमें आर्थिक शक्ति, वैज्ञानिक शक्ति, टेक्नोलॉजी की शक्ति और नागरिकों के आत्मबल की ताकत भी शामिल है. किसी भी राष्ट्र का आत्मबल उसकी प्रजातान्त्रिक सोच, शैक्षिक संस्थानों, कला जगत के नैपुण्य, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के अधिष्ठान से सीधे जुड़ा है. इसे ही आज की भाषा में ‘सॉफ्ट पॉवर’ कहते हैं. ‘सॉफ्ट’ और ‘हार्ड’ पॉवर का सही संतुलन किसी भी राष्ट्र के प्रभाव क्षेत्र को कई गुना बढ़ा देता है. वर्तमान युग में हथियारों की सर्व संहारक क्षमता को देखते हुए, एक तरफ सामरिक शक्ति की अपनी सीमाएं है. दूसरी तरफ, सिर्फ ‘सॉफ्ट’ पॉवर के ज़रिये कोई भी राष्ट्र अपेक्षित सम्मान नहीं पा सकता.
लेकिन सिर्फ शक्ति की पूजा मात्र से समाज का काम नहीं चल सकता. अगर शक्ति की उपासना उसके अर्थपूर्ण संचय में परिवर्तित नहीं होती तो फिर ऐसा शक्तिपूजन एक ढकोसला मात्र ही माना जाएगा. ऐसी शक्ति पूजा मुंगेरीलाल के हसीन सपने से ज़्यादा और कुछ नहीं. इसलिए उपासना के इस भाव को उपर्युक्त कौशल विकास के साथ मूर्त्तरूप में उसे इकठ्ठा करना आवश्यक है. समयानुकूल टेक्नोलॉजी और ज्ञान विज्ञान की समझ और इनका उपयोग इसके अनिवार्य तत्व हैं. हम जानते ही हैं कि कैसे मध्यकाल में बारूद के उपयोग की अनभिज्ञता के कारण भारत को विदेशी हमलों में बेहद नुकसान उठाना पड़ा. उस समय अगर हमारे वीरों के पास भी ये टेक्नोलॉजी होती तो हम पराधीन नहीं होते.
शक्ति की उपासना और उसके संचय के साथ ही एक तीसरा तत्त्व भी ज़रूरी है. वह है शक्ति के उपयोग की मानसिकता तथा उसका बुद्धिमत्तापूर्ण प्रदर्शन. जिस देश के नेतृत्व में ज़रुरत पड़ने पर बल प्रयोग का साहस नहीं होता, उसके पास शक्ति होना या न होना बराबर ही है. याद कीजिये, लौहपुरुष और देश के पहले गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने हैदराबाद में यदि बलप्रयोग नहीं किया होता तो क्या देश में उसका विलय हो पाता? वहीं, जम्मू-कश्मीर के मामले में हमसे चूक हो जाने के कारण उसका एक भूभाग पाकिस्तान के कब्ज़े में चला गया. उस समय की गलतियों का खामियाज़ा देश आज भी बाकी जम्मू-कश्मीर में झेल ही रहा है.
बल का रणनीतिक प्रदर्शन भी इसके साथ बहुत ज़रूरी है. भारतीय ग्रंथों में इसके अनेक उदाहरण मौजूद है. एक कदम पीछे हटकर चार कदम आगे जाना कैसे लक्ष्य की पूर्ति के लिए किया जा सकता है, यह हम हनुमान जी से सीख सकते है. ज्ञानियों में अग्रगण्य कहे जाने वाले पवनपुत्र हनुमान जब लंका पहुँचते हैं तो अशोक वाटिका उजाड़ने के समय वे रावण के पुत्र मेघनाद के हाथों बँध जाते हैं. क्योंकि उनके अनुसार “मोहिं न कछु बाँधे कर लाजा, कीन्ह चहहुँ निज प्रभु कर काजा.” अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए वे अपमान भी सहते है. परन्तु रावण की सभा में और उसके बाद सोने की लंका को जलाने में वे अपने बल और क्षमताओं का सार्वजानिक प्रदर्शन करते हैं. इससे वे शक्तिशाली दानव समुदाय और सेना में भय और श्रीराम की संभावित शक्ति का एक बीज बो देते है.
विजयादशमी पर शक्ति पूजा महज एक परंपरा का निर्वाह भर नहीं है. यह राष्ट्र का वर्तमान संवारने और भविष्य में आने वाले संकटों से निपटने के लिए समाज को तैयार करने का उपक्रम है. मौजूदा विश्व एक ऐसे मुकाम की ओर बढ़ रहा है, जहाँ हमारे मूल्यों, जीवन शैली, धरोहर और हमारी जीवंत सभ्यता को बचाने के लिए संघर्ष अनिवार्य होगा. इस संघर्ष के कई मोर्चे आतंकवाद और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के रूप में कई दशकों से खुले हुए हैं. अब तक इनका सामना हमने अच्छी तरह से किया है. लेकिन आगे चलकर इनकी जटिलताओं को समझते हुए उपर्युक्त शक्ति का संधान ही इस अनवरत युद्ध में हमें विजय दिलाएगा. विजयादशमी को इस भाव से देखना और मनाना आज हमारे लिये ज़रूरी है. संस्कृत की ये कहावत हमें ध्यान रखनी होगी कि ‘दौर्बल्यं कष्टदं सदा’ अर्थात दुर्बलता हमेशा कष्ट ही देती है.
– उमेश उपाध्याय
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