राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांचवे सरसंघचालक कुप्पहली सीतारमय्या सुदर्शन का जन्म 19 जून, 1931 को रायपुर में हुआ था. मूल रूप से कर्नाटक के एक गाँव कुप्पहली के निवासी अपने पिता सीतारमय्या के वन विभाग में कार्यरत होने के कारण लंबे समय तक मध्य प्रदेश में रहे. यहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई और उन्होंने जबलपुर से दूरसंचार अभियांत्रिकी में बी.ई. किया. वे नित्य प्रति के जीवन में स्वदेशी के आग्रही थे और कार्यकर्ताओं को भी कुटीर उद्योगों के उत्पादों के प्रयोग के लिए प्रेरित करते थे. इतना ही नहीं, सुदर्शन जी का संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, बंगला, कन्नड़, असमिया और पंजाबी भाषाओं पर एक समान अधिकार था. कन्नड़ भाषी होने के उपरांत भी वे राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे.
किसी भी समस्या के मूल को खोजकर उचित समाधान तक पहुंचना, उनके मूलगामी चिंतन की विशेषता थी. आज जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रही दुनिया को लेकर उनका मानना था कि समाज सुखी होगा तो मनुष्य सुखी हो सकेगा. समाज तब सुखी होगा, जब प्रकृति के साथ उसका तालमेल ठीक होगा और प्रकृति के साथ तालमेल ठीक रहेगा, जब हम यह अनुभव करके चलेंगे कि सबके अन्दर एक ही परमतत्व व्याप्त है. इतना ही नहीं, जल ही जीवन है और उसका संरक्षण सर्वोपरि है इस बात को वे रेखांकित करते थे. उनके अनुसार, नदी नालों पर छोटे-छोटे बाँध बनाकर भूजल के स्तर को ऊंचा किया जा सकता है तथा अल्पव्यय में सिंचाई के साधन खड़े किये जा सकते हैं, जिसे लोगों ने सिद्ध किया है.
उनका मानना था कि उद्यमियों के विकसित बैल चालित ट्रैक्टर, डीजल चालित टैक्टर से दस गुना सस्ता है जो छोटे खेतों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है. ये ट्रैक्टर महिलाएं भी चला सकती हैं क्योंकि इसमें पैदल नहीं चलना पड़ता. इसी तरह, बिजली से चलने वाली तेल घानियां प्रत्येक ग्राम संकुल में लगाने से तिलहन से जहाँ सीधा तेल निकाला जा सकता है, वहीं मवेशियों के लिए उत्तम खली भी प्राप्त हो सकती है.
स्वदेशी के कारण ही सुदर्शन जी देश की आयुर्वेद पद्वति को अपनाए जाने के आग्रही थे. वे मानते थे कि आयुर्वेदीय जड़ी-बूटियों के जितने प्रकार भारत में हैं, उतने विश्व के किसी अन्य देश में नहीं हैं. वे वैश्वीकरण और विदेशी कर्ज की अपेक्षा देश में उपलब्ध संसाधनों के बल पर ग्राम विकास को प्राथमिकता देने के पक्षधर थे. उनका मानना था कि भारतीय जड़ी-बूटियों के उत्पादन को बढ़ावा देने से देश के वनवासी क्षेत्र के विकास में बड़ी मदद मिलेगी. इसी तरह से गांवों के लिए सस्ती सौर ऊर्जा उपलब्ध करवाने से ग्रामों में समृद्धि और विकास का रास्ता खुल सकता है. जिससे गांवों में रहने वाली देश की 75 प्रतिशत जनसंख्या का विकास स्वतः ही हो जाएगा.
इसी तरह, समाज को संतुलित उपभोग की प्रेरणा देने वाले सुदर्शन जी का मानना था कि इस चराचर जगत में जो कुछ है, सब ईश्वर का है, उसमें केवल उतने पर ही हमारा अधिकार है जो हमारे जीवनयापन के लिए नितान्त आवश्यक है, शेष सब भगवान का है, ऐसा समझकर त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए.
सन् 2003 में न्यूयार्क में पर्यावरण की रक्षा के लिए विश्व सम्मेलन हुआ, जिसमें 106 देशों के प्रतिनिधि जुटे. चार दिनों तक यह सम्मेलन चला. तीन दिनों तक पर्याप्त विचार विमर्श के बाद चालीस ऐसे समाधान परक मुद्दे निकाले गए, जिन्हें लागू करने पर सभी प्रतिनिधियों में परस्पर सहमति थी. चौथे दिन सारे प्रतिनिधि इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले थे. अंतिम दिन भारत से जो प्रतिनिधिमंडल गया था, उसने अथर्ववेद में, जो भूमि सूक्त था, उसका अंग्रेजी अनुवाद सम्मेलन के सदस्यों में वितरित करा दिया और इसे पढ़कर दुनिया भर के पर्यावरण विशेषज्ञ आश्चर्यचकित थे कि इस सूक्त में सम्मेलन में सुझाए गये चालीस बिंदु तो थे ही, 22 अन्य बिंदु भी थे, जिन पर सम्मेलन में विचार नहीं हो पाया. किंतु उनके कारण पर्यावरण रक्षा में महत्वपूर्ण भागीदारी होती थी. प्रतिनिधियों ने कहा कि इसे पहले दिन क्यों नहीं वितरित किया, इसके कारण जो माथापच्ची हमने तीन दिनों तक की उससे हम बच सकते थे. अंत में सम्मेलन में सभी ने इस बात पर भी सहमति जताई कि इस सूक्त का अनुपालन यदि होगा तो पर्यावरण की रक्षा संभव है.
समाज और प्रकृति के बीच के संबंध में सुदर्शन जी की सोच यह थी कि प्रकृति के पास इतना अवश्य ही है, जिससे हमारी उचित और वैध आवश्यकताओं की पूर्ति हो. हमारी अनुचित आवश्यकताओं की पूर्ति का सामर्थ्य प्रकृति में नहीं है, Nature has got enough to meet our need, but not our greed. लोभ को पूरा नहीं कर सकते. जो पाश्चात्य चिंतन है, ईसाइयत का चिंतन है, इस्लाम का चिंतन है कि ‘प्रकृति तुम्हारे उपभोग के लिए है, मनुष्य को छोड़कर और किसी में जान तो है ही नहीं. पेड़-पौधों, पशु-पक्षी ये सब निर्जीव हैं. सब जड़ पदार्थ हैं और तुम चाहे जैसा उसका उपयोग कर सकते हो. तो ये जो सारा चक्र है, उस चक्र को हम बिगाड़ देंगे, तो गड़बड़ होगी. जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ, तब इस पर 22 प्रतिशत जंगल था, आज केवल 11 प्रतिशत रह गया है. और इसलिए जो सारा जलवायु है इसके अंदर, एक अस्थिरता पैदा होगी तो इसलिए प्रकृति के साथ में जो संबंध है, उस संबंध को अच्छी तरह से बनाए रखने की आवश्यकता है, इसको प्रकृति धर्म कहते हैं…
जैसे मुझको जीने का अधिकार है, वैसे पशु-पक्षी, पेड़-पौधों को भी जीने का अधिकार है. किन्तु इस बात को ना पूंजीवाद मानता है, ना कम्युनिज्म मानता है. कोई नहीं मानता. इसीलिए उपभोक्तावादी संस्कृति उन्होंने निर्माण की. हमारे पुरखों ने आज से दो हजार साल पहले इसी चीज को बड़े ही सरल शब्दों में कहा था ‘वृक्ष में बीज और बीज में वृक्ष’. हर बीज में पूरा वृक्ष विद्यमान रहता है. जब हम उसको बो देते हैं तो पूरा वृक्ष निकलता है, किन्तु वृक्ष के अन्दर फिर वृक्ष आ सकता है. तो जैसे बीज के अन्दर वृक्ष और वृक्ष के अन्दर बीज है, वैसे ही ऊर्जाणु के अन्दर ब्रह्माण्ड, ब्रह्माण्ड के अन्दर ऊर्जाणु है. द्वन्द की बात भी हमारे यहाँ पहले से ही कही गयी थी कि सुख है तो दुःख है, रात है तो दिन है, जय है तो पराजय है. यह दुनिया द्वन्द्वात्मक है और जो परमतत्व है, वह इन द्वंदों के परे है.
इसी द्वंद्वात्मकता को आज का विज्ञान स्वीकार कर रहा है. तीसरी चीज यह है कि हमारे यहां कहा गया है कि कोई जो अंतिम तत्व है, वह अवर्णनीय है. उसका वर्णन नहीं कर सकते. उसे जिन शब्दों में ओपनहाईमर ने कहा, उन्हीं शब्दों में हमारे उपनिषदों ने भी कहा ‘तदेजति’ – वह चलता है. ‘तन्नैजति’- वह नहीं चलता है. ‘तद्दूरे’ – वह दूर भी है. ‘तद्वन्तिके’ – वह पास भी है. ‘तदन्तरस्य सर्वस्य’ – वह सबके अन्दर है. ‘तंदू सर्वस्य वाह्यम्तः’ वह सबके बाहर भी है (ईशावास्योपनिषद ..५..). जिस भाषा का प्रयोग आज का विज्ञान बीसवीं सदी के अंत में कर रहा है, उस भाषा का प्रयोग हमारे पूर्वजों ने पहले ही कर दिया था.
- राजेंद्र कुमार चड्डा,
सदस्य, केंद्रीय टोली, प्रज्ञा-प्रवाह
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