पहली बार दिल्ली में भाजपा की सरकार आए हुए बमुश्किल पांच महीने हो रहे थे. ठीक से कहें, तो वह दिन था, 25 अक्तूबर, 2014. इस दिन, मुंबई में, एचएन रिलायंस फाउंडेशन हॉस्पिटल के उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री मोदी जी के भाषण में “भारत ने दुनिया को प्लास्टिक सर्जरी सिखाई” इस आशय का एक वाक्य था. उनके शब्द थे, “महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की गोद से पैदा नहीं हुआ था. इसका मतलब यह की उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद थी. हम गणेश जी की पूजा करते हैं. कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस जमाने में, जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सर रखकर प्लास्टिक सर्जरी का प्रारंभ किया होगा…”
उनके द्वारा कहे गए इन शब्दों से तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों में खलबली मची. शेखर गुप्ता ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक हैं. उन्होंने ‘इंडिया टुडे’ साप्ताहिक में ‘राष्ट्र हित’ नाम से प्रकाशित होने वाले अपने स्तंभ में मोदी जी के इन विचारों की खिल्ली उड़ाईं. उन्होंने अपने आलेख में कहा कि ‘मोदी सरकार आधुनिक तकनीकी की बात तो करती है, लेकिन वास्तव में यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भूतकालीन कल्पनाओं पर ही जी रही है.’
शेखर गुप्ता का कहना था कि ‘प्राचीन वैदिक काल से संबंधित संशोधनों पर गर्व करने का अर्थ है, घड़ी की सुईयों को उलटा घुमाना. पश्चिम के देशों को मूलभूत ज्ञान भारत ने दिया है, यह कहना गलत और हास्यास्पद है’. ‘इंडिया टुडे’ के अपने आलेख में उन्होंने आगे लिखा है, “हो सकता है, किसी ने प्लास्टिक सर्जरी, इंसान में पशु में अंगों का प्रत्यारोपण, स्टेम सेल अनुसंधान, किराए की कोख जैसी चीजों की भी कल्पना की हो, मगर इसके आधार पर यह कहना कि यह सारा ज्ञान हमारे पास पहले से था, यह न केवल हास्यास्पद है, वरन खतरनाक भी है.”
इसी प्रसंग पर, ‘इंडिया टुडे’ के इस आलेख से पहले, करण थापर ने, उनके ‘हिन्दू’ समाचार पत्र में प्रकाशित होने वाले स्तंभ में यही विषय छेड़ा था. ‘टू फेसेस ऑफ़ मिस्टर मोदी’ इस शीर्षक से प्रकाशित आलेख में उन्होंने मोदी जी की कड़ी आलोचना की थी. उनका कहना था, “भारत के प्रधानमंत्री के नाते, एक हॉस्पिटल के उद्घाटन के समय, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, ऐसी पौराणिक कहानियां बताना ठीक नहीं है. प्लास्टिक सर्जरी को अपने हिन्दू शास्त्र में कोई वैज्ञानिक आधार न होने के कारण इस प्रकार के वक्तव्य देना भारतीय संविधान के धारा 51 A (h) का उल्लंघन है. संविधान की इस धारा के अनुसार प्रत्येक भारतीय नागरिक को ‘शास्त्रीय/वैज्ञानिक वातावरण’ जतन करने का अधिकार है. मोदी जी का वक्तव्य ‘अशास्त्रीय’ है, इसीलिए उसका विरोध करना आवश्यक है.”
शेखर गुप्ता और करण थापर, इन दोनों ने प्लास्टिक सर्जरी का जिक्र किया था, इसलिए उस के बारे में खोजबीन करना आरंभ किया और विस्मयजनक जानकारी मिलती गयी.
भारत में हैदर – टीपू के साथ हुई लड़ाईयों में अंग्रेजों को दो नए आविष्कारों की जानकारी हुई. (अंग्रेजों ने ही यह लिख रखा है)
- युद्ध में उपयोग किया हुआ रॉकेट और
- प्लास्टिक सर्जरी
अंग्रेजों को प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी मिलने का इतिहास बड़ा रोचक है. सन् 1769 से 1799 से तक, तीस वर्षों में, हैदर अली – टीपू सुलतान इन बाप-बेटे और अंग्रेजों में 4 बड़े युद्ध हुए. इनमें से एक युद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाला ‘कावसजी’ नाम का मराठा सैनिक और 4 तेलगु भाषी लोगों को टीपू सुलतान की फौज ने पकड़ लिया. बाद में इन पाचों लोगों की नाक काटकर टीपू के सैनिकों ने, उनको अंग्रेजों के पास भेज दिया.
इस घटना के कुछ दिनों के बाद एक अंग्रेज कमांडर को एक भारतीय व्यापारी के नाक पर कुछ निशान दिखे. कमांडर ने उनको पूछा तो पता चला कि उस व्यापारी ने कुछ ‘चरित्र के मामले में गलती’ की थी, इसलिए उसको नाक काटने की सजा मिली थी. लेकिन नाक कटने के बाद, उस व्यापारी ने एक वैद्य जी के पास जाकर अपना नाक पहले जैसा करवा लिया था. अंग्रेज कमांडर को यह सुनकर आश्चर्य लगा. कमांडर ने उस कुम्हार जाति के वैद्य को बुलाया और कावसजी व उसके साथ के चार लोगों का नाक पहले जैसा करने के लिए कहा.
कमांडर की आज्ञा से, पुणे के पास के एक गांव में यह ऑपरेशन हुआ. इस ऑपरेशन के समय दो अंग्रेज डॉक्टर्स भी उपस्थित थे. उनके नाम थे – थॉमस क्रूसो और जेम्स फिंडले. इन दोनों डॉक्टरों ने, उस अज्ञात मराठी वैद्य द्वारा किए ऑपरेशन का विस्तृत समाचार ‘मद्रास गजेट’ में प्रकाशन के लिए भेजा. वह छपकर भी आया. विषय की नवीनता एवं रोचकता देखते हुए, यह समाचार इंग्लैंड पहुंचा. लन्दन से प्रकाशित होने वाली ‘जेंटलमैन’ नामक पत्रिका ने इस समाचार को अगस्त, 1794 के अंक में पुनः प्रकाशित किया. इस समाचार के साथ, ऑपरेशन के कुछ छायाचित्र भी दिए गए थे.
जेंटलमैन में प्रकाशित ‘स्टोरी’ से प्रेरणा लेकर इंग्लैंड के जे.सी. कॉर्प नाम के सर्जन ने इसी पद्धति से दो ऑपरेशन किये. दोनों सफल रहे. और फिर अंग्रेजों को और पश्चिम की ‘विकसित’ संस्कृति को प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी मिली. पहले विश्व युद्ध में इसी पद्धति से ऐसे ऑपरेशंस बड़े पैमाने पर हुए और वह सफल भी रहे.
असल में प्लास्टिक सर्जरी से पश्चिमी जगत का परिचय इससे भी पुराना है. वह भी भारत की प्रेरणा से. ऐसा माना जाता है – ‘एडविन स्मिथ पापिरस’ ने पश्चिमी लोगों के बीच प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सबसे पहले लिखा. लेकिन रोमन ग्रंथों में इस प्रकार के ऑपरेशन का जिक्र एक हजार वर्ष पूर्व से मिलता है. अर्थात् भारत में यह ऑपरेशंस इससे बहुत पहले हुए थे. आज से पौने तीन हजार वर्ष पहले, ‘सुश्रुत’ नाम के शस्त्र-वैद्य (आयुर्वेदिक सर्जन) ने इसकी पूरी जानकारी दी है. नाक के इस ऑपरेशन की पूरी विधि सुश्रुत के ग्रंथ में मिलती है.
किसी विशिष्ट वृक्ष का एक पत्ता लेकर उसे मरीज के नाक पर रखा जाता है. उस पत्ते को नाक के आकार का काटा जाता है. उसी नाप से गाल, माथा या फिर हाथ/पैर, जहां से भी सहजता से मिले, वहां से चमड़ी निकाली जाती है. उस चमड़ी पर विशेष प्रकार की दवाइयों का लेपन किया जाता है. फिर उस चमड़ी को जहां लगाना है, वहां बांधा जाता है. जहां से निकाली हुई है, वहां की चमड़ी और जहां लगाना है, वहां पर विशिष्ट दवाइयों का लेपन किया जाता है. साधारणतः तीन हफ्ते बाद दोनों जगहों पर नई चमड़ी आती है, और इस प्रकार से चमड़ी का प्रत्यारोपण सफल हो जाता है. इसी प्रकार से उस अज्ञात वैद्य ने कावसजी पर नाक के प्रत्यारोपण का सफल ऑपरेशन किया था.
नाक, कान और होंठों को व्यवस्थित करने का तंत्र भारत में बहुत पहले से चलता आ रहा है. बीसवीं शताब्दी के मध्य तक छेदे हुए कान में भारी गहने पहनने की रीति थी. उसके वजन के कारण छेदी हुई जगह फटती थी. उसको ठीक करने के लिए गाल की चमड़ी निकाल कर वहां लगाई जाती थी. उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक इस प्रकार के ऑपरेशन्स भारत में होते थे. हिमाचल प्रदेश का ‘कांगड़ा’ जिला तो इस प्रकार के ऑपरेशन्स के लिए मशहूर था. कांगड़ा यह शब्द ही ‘कान + गढ़ा’ ऐसे उच्चारण से तैयार हुआ है. डॉ. एस.सी. अलमस्त ने इस ‘कांगड़ा मॉडल’ पर बहुत कुछ लिखा है. वे कांगड़ा के ‘दीनानाथ कानगढ़िया’ नाम के नाक, कान के ऑपरेशन्स करने वाले वैद्य से स्वयं जाकर मिले. इन वैद्य के अनुभव डॉ. अलमस्त जी ने लिख कर रखे हैं. सन् 1404 तक की पीढ़ी की जानकारी रखने वाले ये ‘कान-गढ़िया’, नाक और कान की प्लास्टिक सर्जरी करने वाले कुशल वैद्य माने जाते हैं. ब्रिटिश शोधकर्ता सर अलेक्झांडर कनिंघम (1814-1893) ने कांगड़ा के इस प्लास्टिक सर्जरी को बड़े विस्तार से लिखा है.
अकबर के कार्यकाल में ‘बिधा’ नाम का वैद्य कांगड़ा में इस प्रकार के ऑपरेशन्स करता था, ऐसा फारसी इतिहासकारों ने लिख रखा है.
‘सुश्रुत’ की मृत्यु के लगभग ग्यारह सौ (११००) वर्षों के बाद ‘सुश्रुत संहिता’ और ‘चरक संहिता’ का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ. यह कालखंड आठवीं शताब्दी का है. ‘किताब-ई-सुसरुद’ इस नाम से सुश्रुत संहिता मध्यपूर्व में पढ़ी जाती थी. आगे जाकर, जिस प्रकार से भारत की गणित और खगोलशास्त्र जैसी विज्ञान की अन्य शाखाएं, अरबी (फारसी) के माध्यम से यूरोप पहुंची, उसी प्रकार ‘किताब-ई-सुसरुद’ के माध्यम से सुश्रुत संहिता यूरोप पहुंच गई. चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में इस ऑपरेशन की जानकारी अरब – पर्शिया (ईरान) – इजिप्त होते हुए इटली पहुंची. इसी जानकारी के आधार पर इटली के सिसिली आयलैंड के ‘ब्रांका परिवार’ और ‘गास्परे टाग्लीया-कोसी’ ने कर्णबंध और नाक के ऑपरेशन्स करना प्रारंभ किया. किन्तु चर्च के भारी विरोध के कारण उन्हें ऑपरेशन्स बंद करने पड़े. और इसी कारण उन्नीसवीं शताब्दी तक यूरोपियन्स को प्लास्टिक सर्जरी की जानकारी नहीं थी.
ऋग्वेद का ‘आत्रेय (ऐतरेय) उपनिषद’ अति प्राचीन उपनिषदों में से एक है. इस उपनिषद में (१-१-४) ‘मां के उदर में बच्चा कैसे तैयार होता है’, इसका विवरण है. इस में कहा गया है कि गर्भावस्था में सर्वप्रथम बच्चे के मुंह का कुछ भाग तैयार होता है. फिर नाक, आंख, कान, ह्रदय (दिल) आदि अंग विकसित होते हैं. आज के आधुनिक विज्ञान का सहारा लेकर, सोनोग्राफी के माध्यम से अगर हम देखते हैं, तो इसी क्रम से, इसी अवस्था से बच्चा विकसित होता है.
भागवत में लिखा है (२-१०२२ और ३-२६-५५) की मनुष्य में दिशा पहचानने की क्षमता कान के कारण होती है. सन् 1935 में डॉक्टर रोंस और टेट ने एक प्रयोग किया. इस प्रयोग से यह साबित हुआ कि मनुष्य के कान में जो वेस्टीब्यूलर (vestibular apparatus) होता है, उसी से मनुष्य को दिशा पहचानना संभव होता है.
अब यह ज्ञान हजारों वर्ष पहले हमारे पुरखों को कहां से मिला होगा..?
संक्षेप में, प्लास्टिक सर्जरी का भारत में ढाई से तीन हजार वर्ष पूर्व से अस्तित्व था. इसके पक्के सबूत भी मिले हैं. शरीर विज्ञान का ज्ञान और शरीर के उपचार यह हमारे भारत की सदियों से विशेषता रही है. लेकिन ‘पश्चिम के देशों में जो खोज हुई है, वही आधुनिकता है और हमारा पुरातन ज्ञान याने दकियानूसी है’, ऐसी गलत धारणाओं के कारण हम हमारी समृद्ध विरासत को नकार रहे हैं..!
– प्रशांत पोळ
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