भारतीय स्त्री का परिवार उसकी शक्ति है, पिंजरा नहीं


स्त्री शक्ति का उद्गम है, परिवार की धुरी है

डॉ. अंशु जोशी

कोविड के चुनौती भरे दिन, हर दिन कुछ नया सिखा रहे हैं, समझा रहे हैं. इन दिनों समझ में आ रहा है कि हमारी दादियां, नानियां, ताइयां, मां, बुआ, कितनी दूरदृष्टा, कितनी समझदार और कितनी सशक्त रही हैं. इन दिनों समझ में आ रहा है कि आज पूरा विश्व जिसे नए सबक के रूप में सीख रहा है, वह हमारी संस्कृति का, हमारी सनातन जीवनशैली का अभिन्न अंग है. सीमित में संतोष रखना, प्रकृति की हर देन का संरक्षण करना, आत्मनिर्भर रहना, स्वावलम्बी रहना, स्वच्छ रहना, अपने आस-पास के लोगों, जीव-जंतुओं और वातावरण का ध्यान रखना, ये पाश्चात्य के लिए नया हो सकता है, हमारे लिए नहीं. और इस जीवनशैली की धुरी है हमारी माताएं, बहनें, बुआएँ, दादियाँ, नानियाँ, या समवेत रूप में कहें तो भारतीय स्त्रियाँ. भारतीय स्त्रियों की बात करते ही मन में छवि उभरती है माता सीता की, जिन्होंने श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनाने में महती भूमिका का निर्वहन किया.

याद आती है, माता सावित्री जो स्वयं यमराज से लड़ कर अपने पति सत्यवान के प्राण लौटा लाईं. स्मृति में चमकती हैं गार्गी और मैत्रयी जैसी विदुषियाँ, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई जैसी वीरांगनाएं, जिनका आभूषण तलवार और ढाल थीं और सावित्री बाई फुले जैसी समाज सुधारक, जिन्होंने शिक्षा का प्रकाश चारों दिशाओं में फैलाया.

भारतीय नारी बिंदी लगा, पायलें पहन घर के आँगन में वट सावित्री की परिक्रमा भी देती हैं और इसरो की प्रयोगशालाओं में बैठ मंगल ग्रह के लिए उपग्रह भी लांच करती हैं. चाहे घर के उत्सव या आयोजन हों या ऑफिस के बोर्ड रूम, भारतीय स्त्री अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. भारतीय नारी सिर्फ अपने बारे में नहीं सोचती, अपने से जुड़े कई जीवन सींचती है. वह धैर्यवान है, साहसी भी, प्रेम से परिपूर्ण है. पर गलत का विरोध भी करती है. भारतीय संस्कृति में स्त्री सदा से शक्ति का स्रोत रही है. धन का स्रोत महालक्ष्मी हैं, तो विद्यादायिनी सरस्वती हैं, साथ ही पूरा कैलाश परिवार संभालती पार्वती जी हैं तो राक्षसों का विध्वंस करती दुर्गा भी हैं.

किन्तु आज जब अपने आस-पास देखती हूँ, तो स्त्री सशक्तिकरण के नाम पर स्त्री का स्त्रीत्व छीन लेने के, उसका पुरुषीकरण करने के कई प्रयास दिखते हैं. यह वामपंथ का ऐसा ज़हरीला षड्यंत्र है, जिसे बड़ी गहनता से समझने की आवश्यकता है, क्योंकि ये प्रयास तथाकथित नारीवाद के नाम पर हमारी संस्कृति, हमारे सनातन और हमारे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की सोची समझी साजिश है.

बड़ी चालाकी से वामपंथी मीडिया और एकेडेमिक्स में एक नैरेटिव तैयार किया गया, जिसका उद्देश्य भारतीय स्त्रियों के दिमाग में ये भर देना है कि उनके परिवारों द्वारा उनका शोषण किया जाता है, कि उनके सुहाग चिन्ह उनकी बेड़ियाँ हैं, कि उन्हें परिवार रूपी चक्की में पिसने के बजाय सिर्फ अपने बारे में सोचना चाहिए, फ्री सेक्स की राह पर निकलना चाहिए और संस्कारों की ज़ंजीरों से अपने आप को आज़ाद कर लेना चाहिए. कई झोला छाप संगठन जैसे “पिंजरा तोड़” इसी नैरेटिव को लेकर स्कूली और कॉलेज की छात्राओं को अपने झांसे में फांस चुके हैं. तथाकथित बुद्धिजीवी होने के नाम पर आगामी पीढ़ी को अपनी संस्कृति से ही काट दिया जा रहा है और इसके परिणाम भयावह ही होंगे क्योंकि भारतीय स्त्री भारत के भविष्य का आईना है. हमारा कल का समाज, कल की पीढ़ी कैसी होगी, ये आज की भारतीय स्त्री पर निर्भर करता है. इसीलिये इस षड्यंत्र को समझ कर इसका निदान अत्यंत आवश्यक है.

जो वामपंथियों को “पिंजरा” दिखाई देता है, वो हमारे संस्कार हैं, हमारे परिवार हैं. हॉस्टल के जो नियम या कायदे इन्हें बेड़ियां लगते हैं, वे दरअसल व्यवस्था और सुरक्षा बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं. सर्वप्रथम तो ये समझने की आवश्यकता है कि जब हम अधिकारों की बात करते हैं, तब साथ में उत्तरदायित्व भी जुड़ जाते हैं. जो स्त्रियां फ्री सेक्स की बात करती हैं, वे पुरुषों को भी इसी अधिकार के दिए जाने का समर्थन करें, या अपने परिवार की महिला सदस्यों को भी इसके लिए प्रेरित करें. यदि तब कोई पुरुष उनका साथ छोड़ दूसरा हाथ थामे, तब वे अपने स्त्री अधिकार की बात न करे.

यहाँ कितनी स्त्रियां मैंने देखी हैं जो अपने गाँव के कस्बों के भारतीय परम्परावादी घर में तमाम कायदों का पालन करके रहती हैं, किन्तु बड़े शहरों के अपने हॉस्टलों में पिंजरे तोड़ने की बातें करती हैं. ये बच्चियों के मन में अपने संस्कृति चिन्हों या परम्पराओं के लिए विष बेल का रोपण कर देती हैं, किन्तु अपने व्यक्तिगत जीवन में तमाम भारतीय उत्सव मना हर्षोल्लास से रहती हैं. वामियों का ये एक बड़ा चरित्र है, हिपोक्रेसी. और इसी को समझकर इससे बचने की आवश्यकता है.

हमारे समाज में निस्संदेह कुरीतियाँ व्याप्त हैं. कन्या भ्रूण हत्या से लेकर दहेज़ प्रथा जैसी समस्याओं के समूल नाश की ज़रुरत है, पर ये होगा अपनी मानसिकता में बदलाव कर पुनः अपने गौरवशाली अतीत की जीवनशैली की और लौटने से. अपने प्राचीन भारतीय साहित्य को पढ़ लीजिये, आप न कोई पर्दा प्रथा पाएंगे, न कन्या को बोझ समझने की कु-मानसिकता, न ही दहेज़ न मिलने पर बहू को जलाये जाने का कोई प्रसंग. प्राचीन भारतवर्ष में तो स्वयंवर की प्रथा प्रचलित थी, जहां कन्या अपने वर का वरण करती थी. ये तमाम कुरीतियां बाहरी तत्वों के भारत में पदार्पण के साथ शुरू हुई हैं. और इनका निराकरण समाज को जलाने या मिटाने से नहीं, अपितु शिक्षा के माध्यम से मानसिकता में बदलाव से होगा.

आज अपने आस-पास देखें तो ये बदलाव नज़र भी आता है. चाहे सेना का मैदान हो या खेल का, चाहे संसद के गलियारे हों या विश्वविद्यालयों के, स्त्रियां अग्रणी भूमिका में नज़र आती हैं. गीता-बबीता फोगाट से लेकर स्मृति ईरानी, टेसी थॉमस, नंदिनी हरिनाथ, मौमिता दत्ता, अनराधा टी.के. तक, भारतीय स्त्री हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही है. समाज और परिवारों के स्तर पर देखें तो स्त्री शक्ति से बुना एक अद्भुत ताना-बाना नज़र आता है. भारतीय संस्कृति और समाज की रचना अनोखी है. अपनी संस्कृति किसी एक ग्रन्थ के आधार पर नहीं बनी है कि जिसमें स्त्री को पुरुष की सहायिका का दर्जा दिया गया हो. भारतीय संस्कृति एक वृहद् जीवनशैली है, जिसमें स्त्री एक इंद्रधनुष की तरह है. वह अर्धनारीश्वर में पुरुष के बराबर है, वह शक्ति का उद्गम है, वह परिवार की धुरी है.

तथाकथित सशक्तिकरण के नाम पर उसका पुरुषीकरण करना या विकृतिकरण करना कहाँ तक सही है, ये समझने की ज़रुरत है. भारतीय स्त्री का परिवार उसकी शक्ति है, पिंजरा नहीं. अपनों के बीच वो प्रखर प्रकाश फैलाती सूर्य की रश्मि भी है, तो शीतलता का छिड़काव करती चन्द्रमा की चांदनी भी. उसकी प्रसन्नता उसके अकेले से नहीं जुड़ी. अपने आस-पास सब मुस्कुराता देख वो मुस्कुराती है. ये सब न कल्पना है, न अनुमान. एक भारतीय स्त्री होने के नाते ये बात मैं दावे से कह सकती हूँ. मेरे जैसी हज़ारों लाखों स्त्रियां इस बात से सहमत होंगी कि हमें रंगों से प्रेम है, आभूषणों से भी. हमें अपने परिवार का साथ बेड़ी नहीं प्रेरणा लगता है. हमें अपनी संस्कृति पिंजरा नहीं वो झरोखा लगती है जहां से हम संपूर्ण विश्व को देख-समझ-परख पाती हैं.

हमें पिंजरा तोड़ना है छद्म नारीवाद का, हमें पिंजरा तोड़ना है स्त्री को पुरुष बनाये जाने के षड्यंत्र का और आज़ाद करना है उन तमाम स्त्रियों को जो फंस गयी हैं, एक ऐसे मकड़ जाल में जिसका परिणाम है अकेलेपन की ऐसी अंधेरी दुनिया जहां न रंग हैं, न प्रेम, न मुस्कुराहटें.

आओ सखी पाश्चात्य और छद्म नारीवाद का पिंजरा तोड़ें!

(लेखिका जेएनयू में सहायक प्राध्यापक हैं)

साभार – पाञ्चजन्य

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