अनियंत्रित वेब विषय वस्तु पर मंथन की आवश्यकता

डॉ. खुशबू गुप्ता

सिनेमा मनोरंजन का माध्यम रहा है. हमारे आस-पास तथा सामाजिक परिवेश में जो भी घटित हो रहा होता है, उन महत्वपूर्ण विषयों को सिनेमा के जरिये लोगों तक पहुंचाया जाता है. चाहे वह समसामयिक मुद्दा हो, महिलाओं से सम्बंधित मुद्दा, जाति, वर्ग, लिंग, भेद, भ्रष्टाचार, राजनीति, इतिहास से सम्बंधित हो, ऐसे तमाम विषयों को सिनेमा के माध्यम से दर्शकों को दिखाया जाता रहा है. देखें तो उदारीकरण के बाद से सिनेमा की विषय वस्तु में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए हैं, जिसे इस वाक्य “सिनेमा समाज का दर्पण है” के  विपरीत देख सकते हैं. जैसे सिनेमा अब उन विषय वस्तुओं का चुनाव करता है जो समाज में घटित नहीं हो रही होती है और कल्पना का दृश्यांकन उत्तेजित, हिंसात्मक, अन्तरंग तत्वों को समाहित करता है. सिनेमा के आरंभिक काल में सामाजिक व नैतिक दायित्वों का दृश्यांकन कला विधा के अंतर्गत होता रहा है, परन्तु आज के दौर में फिल्म, वेबसीरीज, पूंजीवाद और बाजारीकरण के तत्वों से इतना बंध गया है कि सिनेमा ने अपनी कला विधा के स्वरुप को ही बदल दिया है.

इसी सन्दर्भ में विगत कुछ वर्षों से ओटीटी एप्स जैसे नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार, अमेजन प्राइम, जी५ के माध्यम  से फ़िल्में एवं “वेब सीरीज” बहुत लोकप्रिय हो रहे हैं. वेब पर बहुत आसानी से किसी भी विषय वस्तु का  प्रसारण तथा इनके माध्यम से दर्शकों की मांग के अनुसार विषय वस्तु ग्राहकों को उपलब्ध कराया जाता है. बता दें कि फिल्में जब बनती हैं तो उसे रिलीज करने से पूर्व केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड या सेंसर बोर्ड से अनुमति लेनी होती है. सम्बंधित संस्था से अनुमति के बाद ही फिल्में रिलीज की जाती हैं. वेबसीरीज जो की नेटफ्लिक्स अमेज़न प्राइम, हॉटस्टार जैसे ओटीटी एप्स के माध्यम से इन्टरनेट पर डायरेक्ट रिलीज की जाती हैं. विषय वस्तु के प्रसारण हेतु नियामक संस्था के अभाव में कोई भी नियमन नहीं लगाया जाता, जैसे फिल्मों के प्रसारण से पूर्व सेंसर बोर्ड की अनुमति लेनी होती है. किसी भी विषय पर वीडियो स्ट्रीमिंग की जाती है. गौरतलब हो कि विश्व में इनकी लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ रही है और पिछले कुछ समय से ओटीटी सेवाओं का भारत में भी लोकप्रियता बढ़ रही हैं. विशेषज्ञों की मानें तो भविष्य में मनोरंजन के लिए ओटीटी कंटेंट विश्वभर में सबसे ज्यादा देखे जाएँगे.

ओटीटी एप्स के माध्यम से कुछ ऐसे वेब सीरीज और फिल्मों का प्रसारण किया जा रहा है जो खासा चर्चित और विवादित रहे हैं. अब प्रश्न यह उठ रहा है कि आखिर कुछ ऐसे वेबसीरीज विवादित क्यों हैं? हाल ही में देखे तो रसभरी, लैला, पाताल लोक, कृष्ण एंड हिज लीला कुछ ऐसे कंटेंट रहे हैं जो  भड़काऊ, अशोभनीय, निंदनीय, संस्कार विहीन, आपत्तिजनक हैं. भारतीय सन्दर्भ में देखे तो इन वीडियो कंटेंट के माध्यम से भारतीय गौरवशाली संस्कृति एवं मूल्यों, इतिहास के साथ छेड़छाड़, धर्म विशेष की भावनाओं का अपमान करने के इरादे से दर्शकों को दिखाया जा रहा है. इन पर कोई नियमन न होने के कारण ओटीटी एप्स जैसे प्लेटफॉर्म के जरिये ऐसे मूल्यविहीन वेब सीरीज, फ़िल्में  युवाओं में काफी लोकप्रिय हो रहे हैं.

प्रश्न यह उठता है कि आखिर आज यह मुद्दा क्यों उठाया जा रहा है, पहले भी ऐसी चलचित्र बनाकर दिखाए जा रहे हैं? बात यहां सिर्फ मनोरंजन से सम्बंधित नहीं है, न ही किसी अभिनेता या अभिनेत्री के व्यवसाय से सम्बंधित है और ऐसा भी नहीं है कि पूर्व में ऐसे कंटेंट फिल्मों के माध्यम से नहीं दिखाए जा रहे हैं. लेकिन  विषय की संवेदनशीलता को देखते हुए बीते दिनों केन्द्रीय प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी द्वारा इस सीरीज पर आपत्ति जताई गई, जिसमे एक बच्ची को सेक्सुअलाइज किया जा रहा है. ऐसे निम्न स्तर की पटकथा के माध्यम से अबोध लड़की को एक वस्तु के रूप में दिखाया जाना निंदनीय है. दूसरा, साथ ही साथ यह शिक्षा जगत से जुड़ा है, एक महिला शिक्षिका जो कि “रसभरी” वेब सीरीज में मुख्य किरदार निभा रही है, जिससे एक शिक्षिका की समाज में, छात्रों के मध्य छवि को ख़राब करने का कार्य किया जा रहा है. मनोरंजन के नाम पर कुछ भी परोस दिया जा रहा है. अनियंत्रित रूप से अश्लीलता को दिखाया जा रहा जो भारतीय संस्कृति और समाज के अनुकूल नहीं है. कुछ ऐसे वेब सीरीज और फिल्मे हैं, जिसमें एक धर्म विशेष की भावनाओं को आघात पहुंचाने का कार्य किया गया है. इस सन्दर्भ में सरकार को कुछ सख्त नीति बनानी चाहिए, जिससे इस तरह के वेब सीरीज पर प्रतिबन्ध या नियंत्रण लगाया जा सके.

यह बात सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं है. यह एक ऐसा गंभीर विषय है जो आने वाले समय में न केवल हमारी संस्कृति एवं मूल्यों को अत्यधिक प्रभावित करेगा. बल्कि हिन्दू धर्म के लिए भी संकट खड़ा करेगा. हमारा समाज, हमारी युवा पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी संस्कार विहीन रहेंगी. देश के युवा वर्ग के चरित्र एवं व्यक्तित्व निर्माण, संस्कार, नैतिक मूल्यों, मानवीय मूल्यों का ह्रास न हो, इस बात को ध्यान में रखकर मुखर रूप से हमें इस मुद्दे को उठाने एवं आत्ममंथन की आवश्यकता है आखिर कब तक? आधुनिकता, उदारीकरण और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा है, परन्तु परोसने वालों को यह याद दिला दें कि सार्वजनिक विषय वस्तु की सामूहिक दायित्व निर्वहन की भी जिम्मेदारी होती है. सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष की “रसभरी” जैसी वेबसीरीज पर आपत्ति जाताना इस ओर बदलाव का संकेत तो है. देखने वाली बात यह भी है कि क्षेत्र में किस हद तक बदलाव आएगा. निम्नस्तर की पटकथा को  सामाजिक विषय बताकार ऐसे कंटेंट का प्रसारण करना समाज के प्रतिकूल है और अनुचित भी.

(अस्सिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय)

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